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उज्जैन: महाकाल की महिमा अपार

मध्य प्रदेश में स्तिथ महाकाल की नगरी उज्जैन में कई महत्वपूर्ण मंदिरों के अलावा नगर से थोड़ी दूर एक गुफा है। यह अपने भीतर रहस्यों की एक पूरी दुनिया ही समेटे हुए है। दूसरी तरफ बौद्ध स्तूपों के लिए प्रसिद्ध सांची है, जहां कलिंग युद्ध के बाद मर्माहत सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।
एक कथा है पुराणों में कि जब देवताओं और राक्षसों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया तब उसमें से कई अमूल्य चीजें प्राप्त हुई। इनमें एक अमृत कलश भी था। देवता बिलकुल नहीं चाहते थे कि इस अमृत का थोड़ा सा भी हिस्सा वे राक्षसों के साथ बांटें। देवराज इंद्र के संकेत देने पर उनका पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर भाग निकला। राक्षस उसके पीछे-पीछे भागे। कलश पर कब्जे के लिए बारह दिनों तक हुए संघर्ष के दौरान अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी के चार स्थानों पर छलक पड़ीं। ये स्थान हैं- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन । कलश से छलकी अमृत बूंदों को इन स्थानों पर स्थित पवित्र नदियों ने अंगीकार कर लिया। उज्जैन के किनारे बहने वाली शिप्रा भी इन नदियों में से एक थी।
इस उज्जैन की पहचान सिर्फ सिंहस्थ पर्व नहीं है। अवंतिका, विशाला, अमरावती, सुवर्णश्रृंगा, कुशस्थली और कनकश्रृंगा ग्रंथों और इतिहास के पन्नों में चमकती यह प्राचीन नगरी वही है जहां राजा हरिश्चंद्र ने मोक्ष की सिद्धि की थी। जहां सप्तर्षियों ने मुक्ति प्राप्त की थी। जो भगवान कृष्ण की पाठशाला थी। भर्तृहरि की योग भूमि थी। जहां कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ और मेघदूत जैसे महाकाव्य रचे। विक्रमादित्य ने अपना न्याय क्षेत्र बनाया। बाणभट्ट, संदीपन, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य जैसे संत विद्वानों ने साधना की और न जाने कितनी महान आत्माओं की यह कर्म और तपस्थली बनी। ऐसी भूमि पर कदम रखते ही कौन खुद को धन्य महसूस नहीं करेगा। मैंने जब इस धरा पर पहले-पहल कदम रखा तो एक साथ न जाने कितने भावों से एकाएक सराबोर हो गया।
मध्य प्रदेश में बसे उज्जैन के लिए निकटतम हवाई अड्डा इंदौर है, जो उज्जैन से पचपन किलोमीटर की दूरी पर है। इंदौर में रेलवे स्टेशन भी है जो दिल्ली, मुंबई, बनारस, भोपाल, अहमदाबाद, बिलासपुर और जयपुर जैसे महत्वपूर्ण स्थानों से सीधा जुड़ा है। इंदौर से उज्जैन बस या ट्रेन के जरिये आसानी से 45 मिनट में पहुंचा जा सकता है।
महाकाल के रहस्यलोक में
उज्जैन के दक्षिण में शिप्रा नदी से थोड़ा दूर उज्जैन का खास आकर्षण यहां का महाकाल मंदिर है। यहां का ज्योतिर्लिग पुराणों में वर्णित द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक है। उज्जैन के प्रसिद्ध महाकाल वन में स्थित महाकाल की महिमा प्राचीन काल से ही दूर-दूर तक फैली हुई है। महाकाल का यह मंदिर न जाने कितनी बार बना और टूटा। आज का महाकाल का यह मंदिर आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व राणोजी सिंधिया के मुनीम रामचंद्र बाबा शेण बी ने बनवाया था। इसके निर्माण में मंदिर के पुराने अवशेषों का भी उपयोग हुआ। रामचंद्र बाबा से भी कुछ वर्ष पहले जयपुर के महाराजा जयसिंह ने द्वारकाधीश यानी गोपाल मंदिर यहां बनवाया था। यहां श्रीकृष्ण की चांदी की प्रतिमा है। यहां तक कि मंदिर के दरवाजे भी चांदी के बने हुए हैं। कहा जाता है कि मंदिर का मुख्य द्वार वही है जिसे सिंधिया ने गजनी से लूट में हासिल किया था। इसके पहले यह द्वार सोमनाथ की लूट के दौरान यहां से गजनी पहुंचा था।
यहां द्वारकाधीश की प्रतिमा होने से इसे द्वारकाधीश मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर की रचना और परिक्रमा परिसर अत्यंत रमणीय है। यहां दर्शनार्थियों की हमेशा भीड़ लगी रहती है, लेकिन जितनी भीड़ महाकालेश्वर मंदिर में होती है उतनी यहां और किसी मंदिर में नहीं होती। घंटों तक लोग कतारबद्ध खड़े रहते हैं। सिंहस्थ पर्व और महाशिवरात्रि के दौरान तो पूरा-पूरा दिन इंतजार करना पड़ता है।
चिता भस्म से पूजन
महाकालेश्वर का वर्तमान मंदिर तीन भागों में बंटा है। सबसे नीचे तलघर में महाकालेश्वर (मुख्य ज्योतिर्लिग), उसके ऊपर ओंकारेश्वर और सबसे ऊपर नाग चंदेश्वर मंदिर है। नाग चंदेश्वर मंदिर साल में सिर्फ एक बार खुलता है, नागपंचमी के अवसर पर। महाकालेश्वर की यह स्वयंभू मूर्ति विशाल और नागवेष्टित है। शिवजी के समक्ष नंदीगण की पाषाण प्रतिमा है। शिवजी की मूर्ति के गर्भगृह के द्वार का मुख दक्षिण की ओर है। तंत्र में दक्षिण मूर्ति की आराधना का विशेष महत्व है। पश्चिम की ओर गणेश और उत्तर की ओर पार्वती की मूर्ति है। शंकर जी का पूरा परिवार यहीं है।
महाकालेश्वर की दिन में तीन बार पूजा, श्रृंगार तथा भोग आदि से अर्चना होती है। ब्रह्म मुहू‌र्र्त में चार बजे महाकालेश्वर का पूजन चिता भस्म से किया जाता है। यह भस्म किसी मृतक की चिता से लाया जाता है। पूजन का यह कार्य स्वयं महंत करते हैं। इसके बाद पहली सरकारी पूजा सुबह आठ बजे होती है। फिर मध्याह्न और संध्या को पूजा की जाती है। प्रात: और संध्या वाली पूजा में कहीं ज्यादा भीड़ होती है। मंदिर के परिसर में बैठने वाले पुजारी कुछ अधिक पैसे लेकर विशेष पूजा करा देते हैं। उस पूजा के रेट यहां फिक्स किए हुए हैं।
महाकालेश्वर मंदिर के बगल में ही बड़े गणेश का मंदिर है। गणेश की विशाल प्रतिमा होने के कारण इसको बड़े गणेश का सीधा नाम दे दिया गया है। मंदिर के मध्य में सप्तधातु से बनी पंचमुखी हनुमानजी की मूर्ति है। मंदिर के प्रांगण में कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं। गणेश जी के ठीक सामने पंडित सूर्यनारायण जी व्यास ज्योतिषाचार्य के पिता की प्रतिमा है।
726 दीपों का स्तंभ
बड़े गणेश के मंदिर से शिप्रा नदी की तरफ जाने के रास्ते में मंदिर से बीस कदम दूर हरसिद्धि देवी का मंदिर है। हरसिद्धि देवी सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य थीं। किंवदंती है कि सम्राट विक्रमादित्य ने हरसिद्धि को ग्यारह बार अपना मस्तक काटकर चढ़ाया और हर बार फिर मस्तक जुड़ गया। मंदिर के चारों तरफ चार द्वार हैं। मंदिर के दक्षिण में एक बावड़ी है। मंदिर में अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति भी है। मंदिर के बीच में एक गुफा में साधक साधना करते हैं। मंदिर के समक्ष दो ऊंचे विशाल दीप स्तंभ हैं, जिन पर 726 दीपों के स्थान बनाए हुए हैं। नवरात्रि के समय यहां दीप जलाए जाते हैं, जिनका भव्य दृश्य इस मंदिर को आलोकित करता है।
हरसिद्धि देवी के मंदिर के पास एक पतली सी गली है, जिसमें कई छोटे-छोटे मंदिर हैं। इनमें एक मंदिर विक्रमादित्य का है। यहां विक्रमादित्य को समर्पित यह एकमात्र मंदिर है। हालांकि अब हरसिद्धि देवी के सामने वाली बावड़ी के बीच में विक्रमादित्य के एक और मंदिर का निर्माण चल रहा है। इसमें काल भैरव का एक मंदिर भी बनाने का यत्न किया जा रहा है। विक्रमादित्य मंदिर के साथ ही पाटीदार समाज द्वारा बनाया गया श्रीराम मंदिर है। यहां राम, लक्ष्मण, जानकी और हनुमानजी के साथ नवदुर्गा तथा शिव जी की मूर्तियां स्थापित हैं।
जीवनदायिनी शिप्रा
हरसिद्धि देवी और श्रीराम मंदिर के पीछे उज्जैन नगर के पूर्वी छोर पर शिप्रा नदी बहती है। महाकवि कालिदास और बाणभट्ट ने शिप्रा के गौरव और गरिमा का गुणगान अपने काव्य में किया है, पर आज की शिप्रा दयनीय हालत में है। भक्तगण इसकी स्वच्छता का बहुत कम ध्यान रखते हैं। उज्जैनवासियों के लिए शिप्रा जीवनदायिनी है। उन्हें दैनिक उपयोग के लिए जल की आपूर्ति शिप्रा से ही की जाती है। शिप्रा तट पर विशाल घाट, कई मंदिर और छतरियां बनी हुई हैं। यहां जगह-जगह पुजारी भक्तों को पूजा कराते नजर आते हैं। दूर-दूर तक कई घाट बने हुए हैं जिनमें रामघाट, नृसिंह घाट, छत्री घाट, सिद्धनाथ घाट, गंगा घाट और मंगलनाथ घाट प्रसिद्ध और पौराणिक महत्व वाले हैं। नदी के दूसरी ओर कुछ अखाड़े हैं जहां साधु रहते हैं। सिंहस्थ का पर्व दोनों तटों पर लगता है।
यह अंधेरी बंद गुफा
नगर के बाहर छह किलोमीटर की दूरी पर चिंतामणि गणेशजी का मंदिर है। शहर में टैम्पो की बहुत सस्ती और अच्छी सुविधा है, जो दो से तीन रुपये में शहर के किसी कोने में पहुंचा देती है। शहर से बाहर होने के कारण चिंतामणि मंदिर के लिए टैम्पो वाले चार रुपये किराया लेते हैं। चिंतामणि का यह मंदिर बहुत प्राचीन है और दर्शनार्थियों से भरा रहता है। इच्छापूर्ण और चिंताहरण गणेश जी के इस मंदिर में चैत्र मास में एक विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर यहां विशेष पूजा होती है। विवाह का पहला निमंत्रण चिंतामणि को देने की प्रथा काफी लंबे समय से चली आ रही है।
चिंतामणि से और आगे शिप्रा तट के ऊपरी भाग में भर्तृहरि की गुफा है। एक संकरे रास्ते से गुफा के अंदर जाना पड़ता है। कहते हैं गुफा से चारों धाम जाने के लिए मार्ग है, जो अब बंद है। यह नाथ संप्रदाय के साधुओं का प्रिय स्थान है और योग साधना के लिए उत्तम माना जाता है। कई साधु यहां बरसों से साधना करते हुए देखे जा सकते हैं।
लीला भैरोनाथ की
गोपाल मंदिर से तीन किलोमीटर दूर शिप्रा के तट के किनारे भैरवगढ़ नाम की बस्ती है। यहां एक टीले पर काल भैरव का मंदिर है। यह मंदिर चार सौ वर्ष पुराना बताया जाता है। इसे राजा भद्रसेन ने बनवाया था। पुराणों में अष्टभैरव का वर्णन मिलता है। इनमें कालभैरव प्रमुख हैं। मंदिर में कालभैरव की करीब चार फुट ऊंची प्रतिमा है और जैसे भगवान शिव के मंदिर के सामने नंदी होते हैं, वैसे ही कालभैरव के सामने श्वान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है।
कालभैरव के मंदिर के दर्शन की मेरी अभिलाषा उतनी प्रबल नहीं थी जितना यह देखने की कि भैरोनाथ किस तरह देखते-देखते शराब का सेवन करते हैं। उच्चैन के इन भैरोनाथ के बारे में विख्यात है कि ये भैरोजी अपने भक्तों से चढ़ावे के रूप में अन्य चीजों के अलावा शराब भी लेते हैं। कई मनौती मानने वाले भक्त और तांत्रिक शराब की बोतलें चढ़ावे के लिए लाते हैं। मंदिर से कुछ दूरी पर शराब बिक्री केंद्र है, जहां की ज्यादातर बिक्री भैरोनाथ के इस मंदिर की ही बदौलत होती है। कई भक्त शराब की बोतल लेकर आए थे। पुजारी ने उनसे बोतल ली और सारी शराब कटोरेनुमा एक चौड़े पात्र में उड़ेल दी। शराब से भरे उस पात्र को पुजारी ने भैरोनाथ के मुंह से लगाया और थोड़ा तिरछा कर दिया। इसके बाद मंत्रोच्चार शुरू हुए और देखते-देखते एक मिनट में उस पात्र की आधा लीटर शराब उड़न छू हो गई। चमत्कार हो गया। जो लोग यह कमाल पहले देख चुके थे वे विह्वल थे और जो पहली बार देख रहे थे वे चकित। पिछली सदी में अंग्रेज भी चकित हुए थे, पर विश्वास न कर सके। उन्होंने इसकी कड़ी छानबीन भी कराई थी, पर हाथ कुछ न लगा।
यह घर है मंदिरों का
उज्जैन में राजा जय सिंह द्वारा बनाई गई वेधशाला भी है। जंतर-मंतर यंत्र महल नाम से जानी जाने वाली यह वेधशाला शहर की आधुनिक बस्ती माधव नगर के किनारे पर है। राजा जय सिंह की ज्योतिष और ग्रह विज्ञान में काफी रुचि थी और वे चाहते थे कि भारतीय ज्योतिष में ग्रहों का गणित यथार्थ हुआ करे। इसी खयाल से उन्होंने उज्जैन के अलावा जयपुर, काशी, दिल्ली और मथुरा में भी वेधशालाएं बनवाई। समय के साथ मथुरा और काशी की वेधशालाएं ध्वस्त हो गई। अब सिर्फ उच्चैन, जयपुर और दिल्ली की वेधशालाएं ही बची हैं। उच्चैन की वेधशाला में बड़े आकार के पत्थर और ईट से बने चार यंत्र हैं। इनसे काल, नवांश, दिशा, दिगंश और ग्रहों का सूक्ष्म ज्ञान किया जा सकता है। आज भी कई लोग इसका उपयोग करते हैं।
मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में कितने मंदिर हैं और कितने भगवान इसका कोई हिसाब नहीं है। शहर के हर कोने, गली-कूचे में मंदिर और मूर्तियां स्थापित हैं। हजारों की तादाद में बने इन मंदिरों को कोई देखने लगे तो महीनों तक पार न पा सके। शहर में उद्योग और मनोरंजन के साधन न के बराबर हैं। शहर की खूबसूरती अगर कहीं है तो वह यहां के मंदिरों और पत्थरों की मूर्तियों में। शहर में उद्योग न होने के कारण यहां काम के सीमित अवसर हैं और यही कारण है कि यहां अमीर लोग भी गिने-चुने हैं। उज्जैन उन लोगों के लिए खासतौर से भ्रमण के अनुकूल है जो धर्मपरायण हैं या भारत की सांस्कृतिक परंपरा को खोजने में दिलचस्पी रखते हैं।
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