हमारे मानस पटल पर साधु की छवि कुछ, गेरुए या सफेद वस्त्र धारण करने वाले व्यक्ति के रूप में होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हमने अपने जीवन काल में ऐसा ही देखा-सुना है, किंतु आज मानव का जिज्ञासु मन साधु शब्द के बाहरी आवरण के भीतर कुछ और खोजना चाहता है।
हमें वही साधु सच्चे रूप में स्वीकार है, जिसमें साधुत्व भरा हो। आम धारणा यही है कि साधु हो तो वह ब्रह्मचारी हो, कामना रहित हो, जिसका अपनी इंद्रियों पर संपूर्ण नियंत्रण हो, जो किसी के कष्ट का कारण न बने तथा द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध और हठ जैसी मानवीय दुर्बलताओं से परे हो।
यही सच्चा साधुत्व है, लेकिन यह कहना भी निरर्थक न होगा कि ऐसे साधु केवल आश्रम या तीर्थों पर ही नहीं होते। वे तो आपके-हमारे आसपास समाज में सामान्य जीवन जीते हुए भी दिख जाते हैं। साधु केवल गेरुआ या श्वेत वस्त्रों में ही नहीं होते, साधुत्व किसी में भी समाया हो सकता है।
अपने दुखों को भूल कर दूसरों की व्यथा में साझेदार होना, शांति बनाए रखने के लिए अपमान का घूंट पी जाना, अपने पेट की भूख को दबाकर दूसरे के मुंह में कौर रखना और उत्तेजनात्मक परिस्थितियों में भी शांत रहना आदि जाने कितनी मानवीय अभिव्यक्तियां साधुत्व की परिभाषा बन जाती हैं।
मानव जाति ही नहीं पशुओं तक के प्रति नि:स्वार्थ सेवाभाव से ओत-प्रोत होना साधु होने का प्रमाण है। एक विद्यार्थी या कर्मचारी के लिए सत्य और अन्य नैतिक मूल्यों से समझौता किए बगैर सफ लता की ऊंचाइयों को छूना साधुत्व के लक्षण हैं।
आज समाज की कुरीतियों, दोषों का अंत कोई न्यायिक दंड नहीं कर सकता। इसका स्थायी समाधान अपराधी के भीतर के साधुत्व को जगाने से ही संभव है। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम अपने अंदर के साधुत्व को पहचानने का प्रयास करें।
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