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आचमन तीन बार ही क्यों!

धर्मग्रंथों में तीन बार आचमन करने के संबंध में कहा गया है-
प्रथमं यत पिवति तेन ऋग्वेदं प्रीणाति। 
यद द्वितीयं तेन यजुर्वेदं प्रीणाति यद तृतीयं तेन सामवेदं प्रीणाति।। 
अर्थात तीन बार आचमन करने से तीनों वेद यानी-ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद प्रसन्न होकर सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। 
मनु महाराज के मतानुसार-त्रिराचामेदप: पूर्वम्। 
अर्थात सबसे पहले तीन बार आमचन करना चाहिए। इसके कंठशोषण दूर होकर, कफ निवृति के कारण श्वसनक्रिया व मंत्रोच्चारण में शुद्धता आती है। 

इसलिए प्रत्येक धार्मिक कृत्य के शुरू में और संध्योपासन के बीच-बीच में अनेक बार तीन की संख्या में आचमन का विधान बनाया गया है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि इससे कायिक, मानसिक, और वाचिक तीनों प्रकार के पापों की निवृत्ति होकर न दिखने वाले फल की प्राप्त होती है। 

आचमन करने के बारे में मनुस्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मतीर्थ यानी अंगूठे के मूल के नीचे से आचमन करें अथवा प्राजापत्यतीर्थ अर्थात कनिष्ठ उंगली के नीचे से या देवतीर्थ अर्थात उंगली के अग्रभाग से आचमन करें, लेकिन पितृतीर्थ अर्थात अंगूठा व तर्जनी के मध्य से आचमन न करें, क्योंकि इससे पितरों को तर्पण किया जाता है, इसलिए पूजा पाठ में यह वर्जित है। आचमन करने की एक अन्य विधि बोधायन सूत्र में भी बताई गई है, जिसके अनुसार हाथ को गाय के कान की तरह आकृति प्रदान कर तीन बार जल पीने को कहा गया है। 
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