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10 दैवीय वस्तुएं आज भी कहीं हैं, जानिए रहस्य..

संजीवनी बूटी : यह एक ऐसी जड़ी है जिसको खाने से जब तक उसका असर रहता है, तब तक व्यक्ति गायब रहता है। यह एक ऐसी बूटी है जिसका सेवन करने से व्यक्ति को भूत-भविष्‍य का ज्ञान हो जाता है। क्या सचमुच ऐसा है? क्या संजीवनी बूटी होती है? आजकल वैज्ञानिक पारे, गंधक और आयुर्वेद में उल्लेखित कई प्रकार की जड़ी-बूटियों पर शोध कर रहे हैं और इसके चमत्कारिक परिणाम भी निकले हैं।आयुर्वेद और अथर्ववेद में उल्लेख है कि इस तरह की जड़ी-बूटियां होती हैं जिसके प्रयोग से स्वर्ण बनाया जा सकता है। सोने के निर्माण में तेलिया कंद-जड़ी बूटी का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। ऐसी भी औषधियां होती हैं, जो व्यक्ति को फिर से जवान बना देती हैं। औषधियों के बल पर व्यक्ति 500 वर्षों तक निरोगी रहकर जिंदा रह सकता है।
 
माना जाता है कि जड़ी-बूटियों के बल पर जहां सभी तरह के दुख-दर्द दूर किए जा सकते हैं, वहीं धनवान भी बना जा सकता है। जड़ी-बूटियों से 'सम्मोहन टीका' भी बनाया जाता है। जड़ी-बूटियों के माध्यम से धन, यश, कीर्ति, सम्मान आदि सभी कुछ पाया जा सकता है।

दिव्य धनुष और तरकश : दधीचि ऋषि ने देश के हित में अपनी हड्डियों का दान कर दिया था। उनकी हड्डियों से 3 धनुष बने- 1. गांडीव, 2. पिनाक और 3. सारंग। इसके अलावा उनकी छाती की हड्डियों से इंद्र का वज्र बनाया गया। इन्द्र ने यह वज्र कर्ण को दे दिया था। 
पिनाक शिव के पास था जिसे रावण ने ले लिया था। रावण से यह परशुराम के पास चला गया। परशुराम ने इसे राजा जनक को दे दिया था। राजा जनक की सभा में श्रीराम ने इसे तोड़ दिया था। सारंग विष्णु के पास था। विष्णु से यह राम के पास गया और बाद में श्रीकृष्ण के पास आ गया था। गांडीव अग्निदेव के पास था जिसे अर्जुन ने ले लिया था।
 
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक ऐसा धनुष, तीर और तरकश है जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। यह तीर चलाने के बाद पुन: व्यक्ति के पास लौट आता है और तरकश में कभी तीर या बाण समाप्त नहीं होते। सबसे पहले ऐसा ही एक तीर राजा बलि के पास था।
 
भृगुवंशियों ने राजा बलि से विश्‍वजीत के लिए एक यज्ञ करवाया। उस यज्ञ से अग्निदेव प्रकट हुए और उन्होंने राजा बलि को सोने का दिव्य रक्ष, घोड़े एवं दिव्य धनुष तथा दो अक्षय तीर दिए। प्रहलाद ने कभी न मुरझाने वाली दिव्य माला दी और शुक्राचार्य ने दिव्य शंख दिया। इस प्रकार दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर राजा बलि ने इंद्र को पराजित कर दिया था। राजा बलि इन दिव्य धनुष और बाण की बदौलत तीनों लोकों पर राज करने लगा था। 
 
उसी तरह की एक कथा है कि श्वैतकि के यज्ञ में निरंतर 12 वर्षों तक घृतपान करने के बाद अग्निदेव को तृप्ति के साथ-साथ अपच भी हो गया। तब वे ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा की यदि वे खांडव वन को जला देंगे तो वहां रहने वाले विभिन्न जंतुओं से तृप्त होने पर उनकी अरुचि भी समाप्त हो जाएगी।
 
अग्निदेव ने कई बार प्रयत्न किया किंतु इन्द्र ने तक्षक नाग तथा जानवरों की रक्षा हेतु खांडव वन नहीं जलाने दिया। अग्नि पुनः ब्रह्मा के पास पहुंचे। ब्रह्मा से कहा कि अर्जुन तथा कृष्ण खांडव वन के निकट बैठे हैं, उनसे प्रार्थना करें।
 
तब अग्निदेव ने दोनों से भोजन के रूप में खांडव वन की याचना की। अर्जुन के यह कहने पर भी कि उसके पास वेग वहन करने वाला कोई धनुष, अमित बाणों से युक्त तरकश तथा वेगवान रथ नहीं है। अग्निदेव ने वरुणदेव का आवाहन करके गांडीव धनुष, अक्षय तरकश, दिव्य घोड़ों से जुता हुआ एक रथ (जिस पर कपि ध्वज लगी थी) लेकर अर्जुन को समर्पित किया। बाद में अग्निदेव ने कृष्ण को एक चक्र समर्पित किया।
 
गांडीव धनुष : कहते हैं कि गांडीव धनुष अलौकिक था। यह धनुष वरुण के पास था। वरुण ने इसे अग्निदेव को दे दिया था और अग्निदेव से अर्जुन को प्राप्त हुआ था। यह धनुष देव, दानव तथा गंधर्वों से अनंत वर्षों तक पूजित रहा था। वह किसी शस्त्र से नष्ट नहीं हो सकता था तथा अन्य लाख धनुषों की समता कर सकता था। जो भी इसे धारण करता था उसमें शक्ति का संचार हो जाता था। 
 
अक्षय तरकश : अर्जुन के अक्षय तरकश के बाण कभी समाप्त नहीं होते थे। गति को तीव्रता प्रदान करने के लिए जो रथ अर्जुन को मिला, उसमें अलौकिक घोड़े जुते हुए थे जिसके शिखर के अग्र भाग पर हनुमानजी बैठे थे और शिखर पर कपि ध्वज लहराता था। इसी के साथ उस रक्ष में अन्य जानवर विद्यमान थे, जो भयानक गर्जना करते थे।
 
तदनंतर अग्निदेव ने खांडव वन को सब ओर से प्रज्वलित कर दिया। इन्द्र सहित सभी देवता खांडव वन को बचाने के लिए आए लेकिन उनका सामना कृष्ण और अर्जुन से हुआ। अंततोगत्वा सभी हार गए। खांडव वनदाह से तक्षक नाग, अश्वसेन, मायासुर तथा चार शांगर्क नामक पक्षी बच गए थे। इस वनदाह से अग्निदेव तृप्त हो गए तथा उनका रोग भी नष्ट हो गया।पारसमणि : पारसमणि का जिक्र पौराणिक और लोककथाओं में खूब मिलता है। इसके हजारों किस्से और कहानियां समाज में प्रचलित हैं। कई लोग यह दावा भी करते हैं कि हमने पारसमणि देखी है। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में जहां हीरे की खदान है, वहां से 70 किलोमीटर दूर दनवारा गांव के एक कुएं में रात को रोशनी दिखाई देती है। लोगों का मानना है कि कुएं में पारसमणि है।
 
 
पारसमणि की प्रसिद्धि और लोगों में इसके होने को लेकर इतना विश्‍वास है कि भारत में कई ऐसे स्थान हैं, जो पारस के नाम से जाने जाते हैं। कुछ लोगों के आज भी पारस नाम होते हैं।
 
पारसमणि की खासियत : पारसमणि से लोहे की किसी भी चीज को छुआ देने से वह सोने की बन जाती थी। इससे लोहा काटा भी जा सकता है। कहते हैं कि कौवों को इसकी पहचान होती है और यह हिमालय के आस-पास ही पाई जाती है। हिमालय के साधु-संत ही जानते हैं कि पारसमणि को कैसे ढूंढा जाए, क्योंकि वे यह जानते हैं कि कैसे कौवे को ढूंढने के लिए मजबूर किया जाए।

अश्वत्थामा की मणि : मणि एक प्रकार का चमकता हुआ पत्थर होता है। मणि को हीरे की श्रेणी में रखा जा सकता है। इन्हीं में से कुछ मणियां चमत्कारिक थीं। जिसके भी पास मणि होती थी वह कुछ भी कर सकता था। रावण ने कुबेर से चंद्रकांत नाम की मणि छीन ली थी। वहीं मणि आजकल बैद्यनाथ मंदिर में विद्यमान है।
 
द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के पास एक चमत्कारिक मणि थी जिसके बल पर वह शक्तिशाली और अमर हो गया था। अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्‍वत्थामा के पास शिवजी द्वारा दी गई कई शक्तियां थीं। वे स्वयं शिव का अंश थे।
 
जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था।
 
द्रौपदी ने अश्‍वत्थामा को जीवनदान देते हुए अर्जुन से उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दी। युधिष्ठिर के पास से यह मणि किसके पास चली गई? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
 
शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां है? यह नहीं बताया गया है।

स्यमंतक मणि : कुछ लोग कोहिनूर को ही स्यमंतक मणि मानते हैं। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते। सबसे पहले यह मणि इन्द्रदेव के पास थी। वे इसे धारण करते थे। इन्द्रदेव ने यह मणि सूर्यदेव को दे दी थी। बहुत काल के बाद यह मणि राजा सत्राजित के पास पाई गई। सत्राजित ने यह मणि अपने देवघर में रखी थी। वहां से वह मणि पहनकर उनका भाई प्रसेनजित आखेट के लिए चला गया। जंगल में उसे और उसके घोड़े को एक सिंह ने मार दिया और मणि अपने पास रख ली। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंतजी ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए, जहां उन्होंने इसको खिलौने के रूप में अपने पुत्र को दे दी।
 
 
जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुख हुआ। उसने सोचा कि श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमंतक मणि छीन ली है, तब श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर लगे लांछन को मिटाने के लिए मणि की खोज की।
 
इस लोक-निंदा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालने और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जाम्बवंत की गुफा पर पहुंचे और गुफा के भीतर चले गए। वहां उन्होंने देखा कि जाम्बवंत की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जाम्बवंत युद्ध के लिए तैयार हो गया।
 
युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी 7 दिन तक प्रतीक्षा की, फिर वे लोग उन्हें मरा जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर 21 दिनों तक लगातार युद्ध करने पर भी जाम्बवंत श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। उल्लेखनीय है कि जाम्बवंती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया। इस साम्ब के कारण ही कृष्ण कुल का नाश हो गया था। 
 
श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया। उन्होंने कहा कि अब आप ही इस मणि को रखिए, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इस मणि को रखने का अर्थ क्या है अत: उन्होंने वह मणि सत्राजित को दे दी। कुछ कथाओं के अनुसार यह मणि श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी को दे दी थी। उनके पास से यह कहां चली गई, यह कोई नहीं जानता। हालांकि कहते हैं कि यह मणि जिसके भी पास रही वह महान शासक तो बना लेकिन अंत में उसका बहुत बुरा पतन हो गया।

पाञ्चजन्य : महाभारत में कृष्ण के पास पाञ्चजन्य, अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, भीष्म के पास पोंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक था। सभी के शंखों का महत्व और शक्ति अलग-अलग थी। शंखों की शक्ति और चमत्कारों का वर्णन महाभारत और पुराणों में मिलता है। समुद्र मंथन के दौरान इस पाञ्चजन्य शंख की उत्पत्ति हुई थी। शंख को ‍विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि शंख नाद का प्रतीक है। शंख ध्वनि शुभ मानी गई है।
 
हालांकि प्राकृतिक रूप से शंख कई प्रकार के होते हैं। इनके 3 प्रमुख प्रकार हैं- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। इन शंखों के कई उप प्रकार होते हैं। 
 
प्रमुख शंख : लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरूड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं, लेकिन पाञ्चजन्य शंख इन सभी से अलग था।
 
भगवान श्रीकृष्ण के पास पाञ्चजन्य शंख था। कहते हैं कि यह शंख आज भी कहीं मौजूद है। इस शंख के हरियाणा के करनाल में होने के बारे में कहा जाता रहा है। माना जाता है कि यह करनाल से 15 किलोमीटर दूर पश्चिम में काछवा व बहलोलपुर गांव के समीप स्थित पराशर ऋषि के आश्रम में रखा था, जहां से यह चोरी हो गया। यहां से जुड़ी कई बेशकीमती वस्तुएं थीं। 
 
मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के बाद अपना पाञ्चजन्य शंख पराशर ऋषि तीर्थ में रखा था। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि श्रीकृष्ण का यह शंख आदि बद्री में सुरक्षित रखा है।
 
महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण अपने पाञ्चजन्य शंख से पांडव सेना में उत्साह का संचार ही नहीं करते थे बल्कि इससे कौरवों की सेना में भय व्याप्त हो जाता था। इसकी ध्वनि सिंह गर्जना से भी कहीं ज्यादा भयानक थी। इस शंख को विजय व यश का प्रतीक माना जाता है। इसमें 5 अंगुलियों की आकृति होती है। हालांकि पाञ्चजन्य शंख अब भी मिलते हैं लेकिन वे सभी चमत्कारिक नहीं हैं। इन्हें घर को वास्तुदोषों से मुक्त रखने के लिए स्थापित किया जाता है। यह राहु और केतु के दुष्प्रभावों को भी कम करता है।
कौस्तुभ मणि : मंथन के दौरान 5वां रत्न था कौस्तुभ मणि। कौस्तुभ मणि को भगवान विष्णु धारण करते हैं। महाभारत में उल्लेख है कि कालिय नाग को श्रीकृष्ण ने गरूड़ के त्रास से मुक्त किया था। उस समय कालिय नाग ने अपने मस्तक से उतारकर श्रीकृष्ण को कौस्तुभ मणि दे दी थी।
 
यह एक चमत्कारिक मणि है। माना जाता है कि इच्छाधारी नागों के पास ही अब यह मणि बची है या फिर समुद्र की किसी अतल गहराइयों में कहीं दबी पड़ी होगी। हो सकता है कि धरती की किसी गुफा में दफन हो यह मणि।
 
 
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